क्षीर काकोली भी च्यवनप्राश में डाले जाने वाला मुख्य घटक है। यह भी मेदा महामेदा की तरह अष्टवर्ग का एक हिस्सा है। यह हिमालय पर बहुत ऊंचाई पर पाया जाता है। यह बहुत दुर्लभ पौधा है। पर्वतों पर रहने वाले लोग इसे सालम गंठा कहते हैं। इस पर सुन्दर सफ़ेद रंग के फूल आते हैं। इसे अंग्रेजी में white lily भी कहते हैं। इसका कंद बाहर से सफेद लहसुन की तरह लगता है और अन्दर से प्याज की तरह परतें होती हैं। इसका कंद सुखाकर इसका पावडर कर लिया जाता है।
इसे कायाकल्प रसायन भी कहा गया है। हजारों सालों से हिमालय पर रहने वाले संत महात्मा इसका प्रयोग करते रहे हैं और आज भी करते हैं। इसका थोड़ा सा ही पावडर दूध के साथ लेने से कफ, बलगम खत्म हो जाता है। लीवर ठीक हो जाता है। यह रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाता है। यह कमजोर और रोगियों को स्वस्थ करता है। शीतकाल में इसके प्रयोग से ठण्ड कम लगती है। इसको लेने से ताकत आती है। खाना कम भी मिले, तब भी ताकत बनी रहती है। पहाड़ों पर ऊपर चढ़ते समय सांस नहीं फूलता, यह बुढ़ापे को रोकने में मदद करती है।च्यवन ऋषि ने इस पौधे का प्रयोग भी किया था और तरुणाई वापिस पाई थी। यह वास्तव में जीवनी शक्ति प्रदान करने वाली एक दुर्लभ जड़ी बूटियों में से एक है।
अष्टवर्ग
जब अपने जीवन के 75 वर्ष कठोर तप और ब्रम्हचर्य का पालन कर ऋषि च्यवन जो भृगु ऋषि की के वंशज थे, ने पितृ ऋण को चुकाने के लिए उत्तम संतान पाने की सोची तो पाया की उनकी काया तो वृद्ध, जर्जर और कृशकाय हो चुकी है। तब अश्विनी कुमारों ने उनकी मदद के लिए दिव्य जड़ी बूटी युक्त च्यवनप्राश बनाया, जिसका सेवन कर ऋषि च्यवन ने फिर दिव्य काया प्राप्त की।
इस में करीब 43 तत्व होते है जिसमे से एक प्रमुख है --अष्टवर्ग की बूटियाँ, वर्त्तमान में च्यवनप्राश के बढ़िया से बढ़िया नमूनों में, अष्ट वर्गीय पौधों की केवल चार जातियों --वृद्धि , मेधा , काकोली और जीवक का ही उपयोग किया जाता है ;शेष चार का नहीं।इसके नाम है --ऋद्धि , वृद्धि , जीवक , ऋषभक , काकोली , क्षीरकाकोली , मेदा , महामेदा।ये सभी बहुत सुन्दर है और हिमालय के ऊँचे पहाड़ों में ही मिलती है।पतंजलि योग पीठ के दिव्य स्पेशल च्यवनप्राश में इनको भी डाला गया है। ये जीवनीय -- अर्थात जीवन या प्राण शक्ति को बढाने वाली , बृहंणीय--अर्थात मेद वृद्धि या मांस धातु को बढाने वाली ,और वयः स्थापन ---अर्थात वृद्धा वस्था की प्रक्रिया को रोक या बहुत धीमी करने वाले है।
क्योंकि पुराने ज़माने में आयुर्वेद की शिक्षा में विद्यार्थी जंगलों में ही रह कर गुरु के साथ असली जड़ी बूटियाँ देखते थे , इसलिए प्राचीन ग्रंथों में इनकी पहचान नहीं लिखी है।इसके अलावा इसके कई और नाम रखे गए और कई वैद्य इन्हें गुप्त रखते थे इन सब कारणों से इनका पता लगाना मुश्किल था। शालिग्राम निघंटु भूषण में लिखा है की अष्टवर्ग के पौधे राजाओं के लिए भी दुर्लभ है इसलिए उनकी जगह प्रतिनिधि पौधों का प्रयोग कर लेना चाहिए। इससे बहुत भ्रम पैदा हुए।पर आचार्य बाल कृष्ण जी ने हिमाचल ,उत्तरांचल में पहाड़ों जैसे चूरधार, शालिचोती, कामरूनाग, औली, रैनथल, गंगोत्री, यमुनोत्री, हेमकुंड में इनकी खोज की। क्षीर काकोली का एक भी पौधा 3-4 वर्षों तक नहीं मिल पाया क्योंकि इसका अलग अलग पुस्तकों में अलग अलग वर्णन है।इसमें आचार्य बालकृष्ण जी की मदद डॉ जी।एस। गोराया ,वन रक्षक ,और श्री मेला राम शर्मा और कई अन्य लोगों ने की। इनमे से कई लुप्त होने की कगार पर है। इसलिए सरकार को इन्हें टिशु कल्चर से बचाने और बढाने का प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि ये एच आई वी और एड्स जैसी लाइलाज बीमारियों में भी काम आ सकते है।
अष्टवर्ग
जब अपने जीवन के 75 वर्ष कठोर तप और ब्रम्हचर्य का पालन कर ऋषि च्यवन जो भृगु ऋषि की के वंशज थे, ने पितृ ऋण को चुकाने के लिए उत्तम संतान पाने की सोची तो पाया की उनकी काया तो वृद्ध, जर्जर और कृशकाय हो चुकी है। तब अश्विनी कुमारों ने उनकी मदद के लिए दिव्य जड़ी बूटी युक्त च्यवनप्राश बनाया, जिसका सेवन कर ऋषि च्यवन ने फिर दिव्य काया प्राप्त की।
इस में करीब 43 तत्व होते है जिसमे से एक प्रमुख है --अष्टवर्ग की बूटियाँ, वर्त्तमान में च्यवनप्राश के बढ़िया से बढ़िया नमूनों में, अष्ट वर्गीय पौधों की केवल चार जातियों --वृद्धि , मेधा , काकोली और जीवक का ही उपयोग किया जाता है ;शेष चार का नहीं।इसके नाम है --ऋद्धि , वृद्धि , जीवक , ऋषभक , काकोली , क्षीरकाकोली , मेदा , महामेदा।ये सभी बहुत सुन्दर है और हिमालय के ऊँचे पहाड़ों में ही मिलती है।पतंजलि योग पीठ के दिव्य स्पेशल च्यवनप्राश में इनको भी डाला गया है। ये जीवनीय -- अर्थात जीवन या प्राण शक्ति को बढाने वाली , बृहंणीय--अर्थात मेद वृद्धि या मांस धातु को बढाने वाली ,और वयः स्थापन ---अर्थात वृद्धा वस्था की प्रक्रिया को रोक या बहुत धीमी करने वाले है।
क्योंकि पुराने ज़माने में आयुर्वेद की शिक्षा में विद्यार्थी जंगलों में ही रह कर गुरु के साथ असली जड़ी बूटियाँ देखते थे , इसलिए प्राचीन ग्रंथों में इनकी पहचान नहीं लिखी है।इसके अलावा इसके कई और नाम रखे गए और कई वैद्य इन्हें गुप्त रखते थे इन सब कारणों से इनका पता लगाना मुश्किल था। शालिग्राम निघंटु भूषण में लिखा है की अष्टवर्ग के पौधे राजाओं के लिए भी दुर्लभ है इसलिए उनकी जगह प्रतिनिधि पौधों का प्रयोग कर लेना चाहिए। इससे बहुत भ्रम पैदा हुए।पर आचार्य बाल कृष्ण जी ने हिमाचल ,उत्तरांचल में पहाड़ों जैसे चूरधार, शालिचोती, कामरूनाग, औली, रैनथल, गंगोत्री, यमुनोत्री, हेमकुंड में इनकी खोज की। क्षीर काकोली का एक भी पौधा 3-4 वर्षों तक नहीं मिल पाया क्योंकि इसका अलग अलग पुस्तकों में अलग अलग वर्णन है।इसमें आचार्य बालकृष्ण जी की मदद डॉ जी।एस। गोराया ,वन रक्षक ,और श्री मेला राम शर्मा और कई अन्य लोगों ने की। इनमे से कई लुप्त होने की कगार पर है। इसलिए सरकार को इन्हें टिशु कल्चर से बचाने और बढाने का प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि ये एच आई वी और एड्स जैसी लाइलाज बीमारियों में भी काम आ सकते है।
Very Good information -Thanks a lot.
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