Monday, June 8, 2015

क्या-होता-है-गुरु .?

गुरु शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है और इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ(Spiritual Meaning) है - इसके दो व्यंजन (अक्षर) गु और रु के अर्थ इस प्रकार से हैं :-



गु शब्द का अर्थ है अज्ञान, जो कि अधिकांश मनुष्यों में होता है । रु शब्द का अर्थ है, आध्यात्मिक ज्ञान का तेज, जो आध्यात्मिक अज्ञान 
(Spiritual ignorance) का नाश करता (मिटाता) है । संक्षेप में, गुरु वे हैं, जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी Andkar को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां(Spiritual Sensations) और आध्यात्मिक 
ज्ञान (Spiritual knowledge) प्रदान करते हैं -


जिस प्रकार किसी भी क्षेत्र में मार्गदर्शन (Guidance) प्राप्त करने हेतु शिक्षक (teacher) का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यही सूत्र अध्यात्म के क्षेत्र में भी लागू होता है । ‘अध्यात्म’ सूक्ष्म-स्तरीय विषय है, अर्थात बुद्धि की समझ से परे है । इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक (Advanced navigation) अथवा गुरु कौन हैं, यह निश्चित रूप से पहचानना असंभव होता है । किसी शिक्षक अथवा प्रवचनकार की तुलना में गुरु पूर्णतः भिन्न होते हैं । हमारे इस विश्व में वे आध्यात्मिक प्रतिभा से परिपूर्ण दीपस्तंभ-समान होते हैं । वे हमें सभी धर्म तथा संस्कृतियों के मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धान्त (Spiritual Principles) सिखाते हैं ।


जिस व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर 70% अथवा उससे अधिक है, उन्हे संत कहते हैं । संत समाज के लोगों में साधना करने की रूचि निर्माण कर उन्हे साधना पथ पर चलने के लिए मार्गदर्शन करते हैं। गुरु साधकों के मोक्ष प्राप्ति तक के मार्गदर्शन का संपूर्ण दायित्व लेते हैं तथा वह प्राप्त भी करवा देते हैं । 70% आध्यात्मिक स्तर से न्यून स्तर के व्यक्ति को संत नहीं समझा जाता है -


संत और गुरु, दोनों का आध्यात्मिक स्तर ७०% से अधिक होता है । इन दोनों में मानव जाति के प्रति आध्यात्मिक प्रेम (प्रीति), अर्थात निरपेक्ष प्रेम होता है । इन दोनों का अहंकार अत्यल्प होता है । अर्थात वे अपने अस्तित्व को पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि तक ही सीमित न कर (देहबुद्धि) आत्मा तक अर्थात भीतर के ईश्‍वर तक (आत्म बुद्धि) व्याप्त करते हैं ।


गुरु ईश्‍वर के अप्रकट रूप से अधिक एकरूप होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकट शक्ति के प्रयोग की विशेष आवश्यकता नहीं होती । गुरु की तुलना में संतों में अहं की मात्रा अधिक होने से संत गुरु की तुलना में प्रकट शक्ति का अधिक मात्रा में उपयोग करते हैं । परंतु अतिंद्रिय शक्तियों का प्रयोग कर ऐसा ही कार्य करने वालों की तुलना में यह अत्यल्प होता है । उदा. जब कोई व्यक्ति उसकी व्याधि से किसी संत के आशीर्वाद के कारण मुक्त हो जाता है, तब प्रकट शक्ति 20 % होती है; किंतु इसी प्रसंग में जो व्यक्ति संत नहीं है, किंतु अतिंद्रिय (हिलींग) शक्ति से मुक्त करता है, तब यही मात्रा 50 % तक हो सकती है । ईश्‍वर की प्रकट शक्ति 0% होने के कारण, किसी के द्वारा प्रकट शक्ति का उपयोग करना ईश्‍वर से एकरूप होने के अनुपात से संबंधित है । अतः जितनी प्रकट शक्ति अधिक, उतने ही हम ईश्‍वर से दूर होते हैं । 


प्रकट शक्ति के लक्षण हैं – तेजस्वी और चमकीली आंखें, हाथों की तेज गतिविधियां-


निर्धारित कार्य करने के लिए आवश्यक प्रकट शक्ति संत और गुरु को ईश्‍वर से मिलती है । कभी-कभी संत उनके भक्तों की सांसारिक समस्याएं सुलझाते हैं, जिसमें अधिक शक्ति की आवश्यकता होती है । गुरु शिष्य का ध्यान आध्यात्मिक विकास में केंद्रित करते हैं, जिससे शिष्य उसके जीवन में आध्यात्मिक कारणों से आने वाली समस्याआें पर मात करने के लिए आत्म निर्भर हो जाता है । परिणामतः गुरु अत्यल्प आध्यात्मिक शक्ति का व्यय करते हैं । संत एवं गुरु का आध्यात्मिक स्तर न्यूनतम 70 % होता है । 70 % आध्यात्मिक स्तर पार करने के उपरांत गुरु में संत की तुलना में आध्यात्मिक विकास की गति अधिक होती है । वे सद्गुरु का स्तर (80 %) और परात्पर गुरु का स्तर, इसी स्तर के संतों की तुलना में शीघ्रता से प्राप्त करते हैं । यह इसलिए कि वे निरंतर अपने निर्धारित कार्य में, अर्थात शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति करवाने में व्यस्त रहते हैं; जब कि संत भी उनके भक्तों की सहायता करते हैं; किंतु सांसारिक विषयों में -


ईश्‍वर एवं देवताएं अपना अस्तित्व और क्षमता प्रकट नहीं करते; किंतु गुरु (तत्त्व) अपने आपको देहधारी गुरु के माध्यम से प्रकट करता है ।  इस माध्यम से अध्यात्म शास्त्र के विद्यार्थी को (शिष्य के) उसकी अध्यात्म (साधना) यात्रा में उसकी ओर ध्यान देने के लिए देहधारी मार्गदर्शक मिलते हैं । देहधारी गुरु अप्रकट गुरु की भांति सर्व ज्ञानी होते हैं और उन्हें अपने शिष्य के बारे में संपूर्ण ज्ञान होता है । विद्यार्थी में लगन है अथवा नहीं और वह चूकें कहां करता है, इसका ज्ञान उन्हें विश्‍व मन एवं विश्‍व बुद्धि के माध्यम से होता है । विद्यार्थी द्वारा गुरु की इस क्षमता से अवगत होने के परिणाम स्वरूप, विद्यार्थी अधिकतर कुकृत्य करने से स्वयं को बचा पाता है । गुरु शिष्य में न्यूनता की भावना निर्माण नहीं होने देते कि वह गुरु की तुलना में कनिष्ठ है । पात्र शिष्य में वे न्यूनता की भावना को हटा देते हैं और उसे गुरु (तत्त्व) का सर्वव्यापित्व प्रदान करते हैं ।


गुरु धर्म के परे होते हैं और संपूर्ण मानव जाति की ओर समान दृष्टि से देखते हैं । संस्कृति, राष्ट्रीयता अथवा लिंग के आधार पर वे भेद नहीं करते । जिसमें आध्यात्मिक उन्नति की लगन है, ऐसे शिष्य (विद्यार्थी) की से प्रतीक्षा में रहते हैं । गुरु किसी को धर्मांतरण करनेके लिए नहीं कहते । सभी धर्मों के मूल में विद्यमान वैश्‍विक सिद्धांतों को समझ पाने के लिए वे शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति करवाते हैं ।


संत का स्तर प्राप्त करने पर भी सभी को गुरुकृपा का स्रोत सदैव बनाए रखने के लिए अपनी आध्यात्मिक साधना जारी रखनी पडती है । संपूर्ण आत्म ज्ञान होने तक वे शिष्य की उन्नति करते रहते हैं । छठवीं ज्ञानेंद्रिय (अतिंद्रिय ग्रहण क्षमता) द्वारा जो लोग माध्यम बनकर सूक्ष्म देहों से (आत्माएं) सूक्ष्म-स्तरीय ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसके यह विपरीत है । जब कोई केवल माध्यम होकर कार्य करता है, तब उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती । गुरु और शिष्य के संबंध पवित्र (विशुद्ध) होते हैं और गुरु को शिष्य के प्रति निरपेक्ष और बिना शर्त प्रेम होता है । सर्वज्ञानी होने से शिष्य स्थूल रूप से पास में न होने पर भी गुरु का शिष्य की ओर निरंतर ध्यान रहता है । तीव्र प्रारब्ध पर मात करना केवल गुरुकृपा से ही संभव होता है ।


गुरु शिष्य को साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर उसके आध्यात्मिक स्तर और क्षमता के अनुसार मार्गदर्शन करते हैं । वे शिष्य को कभी उसकी क्षमता से अधिक नहीं सीखाते । गुरु सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर ही सीखाते हैं । उदा. शिष्य की आध्यात्मिक परिपक्वता के अनुसार गुरु भक्ति गीतों का (भजनों का) गायन, नामजप, सत्सेवा इत्यादि में से किसी भी साधना मार्ग से साधना बताते हैं । मद्यपान मत करो, इस प्रकार से आचरण मत करो आदि पद्धतियों से वे नकारात्मक मार्गदर्शन कभी नहीं करते । इसका कारण यह है कि कोई कृत्य न करें, ऐसा सीखाना मानसिक स्तर का होता है और इससे आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से कुछ साध्य नहीं होता । गुरु शिष्य की साधना पर ध्यान केंद्रित करते हैं । ऐसा करने से कुछ समय के उपरांत शिष्य में अपने आप ही ऐसे हानिकर कृत्य त्यागने की क्षमता निर्माण होती है ।


गुरु सर्वज्ञानी होने के कारण अंतर्ज्ञान से समझ पाते हैं कि शिष्य की आगामी आध्यात्मिक उन्नति के लिए क्या आवश्यक है । वे प्रत्येक को भिन्न-भिन्न मार्गदर्शन करते हैं ।


गुरु 70 % आध्यात्मिक स्तर से अधिक स्तर के मार्गदर्शक होते हैं । गुरु की खोजमें न जाएं, क्योंकि लगभग सभी प्रसंगों में आप जिसकी खोज में है वह व्यक्ति गुरु ही हैं, यह आप स्पष्ट रूप से निश्‍चित नहीं कर पाएंगे । इसकी अपेक्षा अध्यात्म शास्त्र के मूलभूत छः सिद्धांतों के अनुसार आध्यात्मिक साधना करें । इससे आपको आध्यात्मिक परिपक्वता के उस चरण तक पहुंचने में सहायता होगी, जिससे पाखंडी गुरु के द्वारा धोखा देने से बचना संभव होगा ।


गुरु की खोज बहुत मुश्किल होती है। गुरु भी शिष्य को खोजता रहता है। बहुत मौके ऐसे होते हैं कि गुरु हमारे आसपास ही होता है, लेकिन हम उसे ढूंढ़ते हैं किसी मठ में, आश्रम में, जंगल में या किसी भव्य प्रेस कांफ्रेंस में।


बहुत साधारण से लोग हमें गुरु नहीं लगते, क्योंकि वे तामझाम के साथ हमारे सामने प्रस्तुत नहीं होते हैं। वे ग्लैमर की दुनिया में नहीं है और वे तुम्हारे जैसे तर्कशील भी नहीं है। वे बहस करना तो कतई नहीं जानते।


तुम जब तक उसे तर्क या स्वार्थ की कसौटी पर कस नहीं लेते तब तक उसे गुरु बनाते भी नहीं। लेकिन अधिकांश ऐसे हैं जो अंधे भक्त हैं, तो स्वाभाविक ही है कि उनके गुरु भी अंधे ही होंगे। माना जा सकता है कि वर्तमान में तो अंधे गुरुओं की जमात है, जो ज्यादा से ज्यादा भक्त बटोरने में लगी है।


जिस प्रकार जैन धर्म में कहा गया है कि साधु होना सिद्धों या अरिहंतों की पहली सीढ़ी है। अभी आप साधु ही नहीं हैं और गुरु बनकर दीक्षा देने लगे तो फिर सोचो ये कैसे गुरु। कबीर के एक दोहे की पंक्ति है- 'गुरु बिन ज्ञान ना होए मोरे साधु बाबा।' उक्त पंक्ति से ज्ञात होता है कि कबीर साहब कह रहे हैं किसी साधु से कि गुरु बिन ज्ञान नहीं होता।


गुरु क्या होता है......?

क्या कोई चमत्कार से गुरु बनता है....?

या कोई दुःख दूर करने वाला गुरु बनता है....?

कभी किसी की शादी नहीं तो कभी किसी को बच्चा नहीं, तो कोई पैसों या रिश्तों की उलझन को सुलझाता है क्या वो ही गुरु है...?

क्या कहूँ उनको    ?


ये सब दूर करने वाले तुम्हे हर गली के नुक्कड़ पे मिल जायेंगे | गुरु की कृपा से ये सब तो होता ही है लेकिन गुरु इसके लिए नहीं है | गुरु तो तुम्हे वो दृष्टि देता है कि तुम जीवन के अर्थ को समझ सको | एक ऐसा ज्ञान कि फिर कोई तूफ़ान तुम्हे डरा नहीं सकता, कोई प्रतिकूलता तुम्हे हिला नहीं सकती, हर पल जीते रहो तुम मस्ती में | चाहे सुख हो या दुःख बस तुम हसते रहो हर शाम, खिलखिलाते रहो प्रतिपल वो ज्ञान जो महावीर ने गौतम को दिया, वो ज्ञान जो बुद्ध ने आनन्द को दिया वो ज्ञान ही हर गुरु अपने शिष्य को देता है| इसलिए कहते है  गुरु के बिना वो दृष्टि नहीं मिलती जिस से तुम इस सृष्टि को सही मायने में देख सको | इसीलिए एक अच्छी सुबह की शुरुआत करो.

गुरु:ब्रम्हा गुरु :विष्णु गुरु :देवो महेश्वराय: गुरु:साक्षात् परम'ब्रम्ह :तस्म्यश्री गुरवे नम:

उपचार और प्रयोग-

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