
* ये रोग किसी व्यक्ति को अचानक नहीं होता है। यह एक दिमाग का रोग है जो लम्बे समय दिमाग में पल रहा होता है। इस रोग का प्रभाव धीरे-धीरे होता है। पता भी नहीं पडता कि कब लक्षण शुरू हुए। अनेक सप्ताहों व महीनों के बाद जब लक्षणों की तीव्रता बढ जाती है तब अहसास होता है कि कुछ गडबड है।
* जब यह रोग किसी व्यक्ति को हो जाता है तो रोगी व्यक्ति के हाथ तथा पैर कंपकंपाने लगते हैं। कभी-कभी इस रोग के लक्षण कम होकर खत्म हो जाते हैं। इस रोग से पीड़ित बहुत से रोगियों में हाथ तथा पैरों के कंप-कंपाने के लक्षण दिखाई नहीं देते हैं, लेकिन वह लिखने का कार्य करता है तब उसके हाथ लिखने का कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं।
* यदि रोगी व्यक्ति लिखने का कार्य करता भी है तो उसके द्वारा लिखे अक्षर टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं। रोगी व्यक्ति को हाथ से कोई पदार्थ पकड़ने तथा उठाने में दिक्कत महसूस होती है। इस रोग से पीड़ित रोगी के जबड़े, जीभ तथा आंखे कभी-कभी कंपकंपाने लगती है।
बहुत सारे मरीज़ों में पार्किन्सोनिज्म रोग की शुरुआत कम्पन से होती है। #कम्पन अर्थात् धूजनी या धूजन या ट्रेमर या कांपना। कम्पन अंग में -- हाथ की एक कलाई या अधिक अंगुलियों का, हाथ की कलाई का, बांह का। पहले कम रहता है। यदाकदा होता है। रुक रुक कर होता है। बाद में अधिक देर तक रहने लगता है व अन्य अंगों को भी प्रभावित करता है। प्रायः एक ही ओर (दायें या बायें) रहता है, परन्तु अनेक मरीज़ों में, बाद में दोनों ओर होने लगता है।
* आराम की अवस्था में जब हाथ टेबल पर या घुटने पर, ज़मीन या कुर्सी पर टिका हुआ हो तब यह कम्पन दिखाई पडता है। बारिक सधे हुए काम करने में दिक्कत आने लगती है, जैसे कि लिखना, बटन लगाना, दाढी बनाना, मूंछ के बाल काटना, सुई में धागा पिरोना। कुछ समय बाद में, उसी ओर का पांव प्रभावित होता है।
* कम्पन या उससे अधिक महत्त्वपूर्ण, भारीपन या धीमापन के कारण चलते समय वह पैर घिसटता है, धीरे उठता है, देर से उठता है, कम उठता है। धीमापन, समस्त गतिविधियों में व्याप्त हो जाता है। चाल धीमी / काम धीमा। शरीर की माँसपेशियों की ताकत कम नहीं होती है, लकवा नहीं होता। परन्तु सुघडता व स्फूर्ति से काम करने की क्षमता कम होती जाती है ।
* जब यह रोग धीरे-धीरे बढ़ता है तो रोगी की विभिन्न मांसपेशियों में कठोरता तथा कड़ापन आने लगता है। शरीर अकड़ जाता है, हाथ पैरों में जकडन होती है। मरीज़ को भारीपन का अहसास हो सकता है। परन्तु जकडन की पहचान चिकित्सक बेहतर कर पाते हैं - जब से मरीज़ के हाथ पैरों को मोड कर व सीधा कर के देखते हैं बहुत प्रतिरोध मिलता है। मरीज़ जानबूझ कर नहीं कर रहा होता। जकडन वाला प्रतिरोध अपने आप बना रहता है।
* व्यक्ति को चलने-फिरने में बहुत दिक्कत होती है। खडे होते समय व चलते समय मरीज़ सीधा तन कर नहीं रहता। थोडा सा आगे की ओर झुक जाता है। घुटने व कुहनी भी थोडे मुडे रहते हैं। क़दम छोटे होते हैं। पांव ज़मीन में घिसटते हुए आवाज़ करते हैं। क़दम कम उठते हैं गिरने की प्रवृत्ति बन जाती है। ढलान वाली जगह पर छोटे क़दम जल्दी-जल्दी उठते हैं व कभी-कभी रोकते नहीं बनता । चलते समय भुजाएं स्थिर रहती हैं, आगे पीछे झूलती नहीं । बैठे से उठने में देर लगती है, दिक्कत होती है । चलते -चलते रुकने व मुडने में परेशानी होती है । शारीरिक बैलेंस बिगड़ जाता है। जब रोगी की चाल अनियंत्रित तथा अनियमित हो जाती है तो चलते-चलते रोगी व्यक्ति कभी-कभी गिर जाता है। चेहरे का दृश्य बदल जाता है। आंखों का झपकना कम हो जाता है।
पार्किन्सन रोग के लक्षण......
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* आंखें चौडी खुली रहती हैं। व्यक्ति मानों सतत घूर रहा हो या टकटकी लगाए हो । चेहरा भावशून्य प्रतीत होता है बातचीत करते समय चेहरे पर खिलने वाले तरह-तरह के भाव व मुद्राएं (जैसे कि मुस्कुराना, हंसना, क्रोध, दुःख, भय आदि ) प्रकट नहीं होते या कम नज़र आते हैं।
* खाना खाने में तकलीफें होती है। भोजन निगलना धीमा हो जाता है। गले में अटकता है। कम्पन के कारण गिलास या कप छलकते हैं। हाथों से कौर टपकता है। मुंह से पानी-लार अधिक निकलने लगता है। चबाना धीमा हो जाता है। ठसका लगता है, खांसी आती है।
* आवाज़ धीमी हो जाती है तथा कंपकंपाती, लड़खड़ाती, हकलाती तथा अस्पष्ट हो जाती है, सोचने-समझने की ताकत कम हो जाती है और रोगी व्यक्ति चुपचाप बैठना पसन्द करता है। नींद में कमी, वजन में कमी, कब्जियत, जल्दी सांस भर आना, पेशाब करने में रुकावट, चक्कर आना, खडे होने पर अंधेरा आना, सेक्स में कमज़ोरी, पसीना अधिक आता है।
* उपरोक्त वर्णित अनेक लक्षणों में से कुछ, प्रायः वृद्धावस्था में बिना पार्किन्सोनिज्म के भी देखे जा सकते हैं । कभी-कभी यह भेद करना मुश्किल हो जाता है कि बूढे व्यक्तियों में होने वाले कम्पन, धीमापन, चलने की दिक्कत डगमगापन आदि पार्किन्सोनिज्म के कारण हैं......
* पार्किन्सन रोग समूची दुनिया में, समस्त नस्लों व जातियों में, स्त्री पुरुषों दोनों को होता है। लेकिन पुरुषों में इसका असर थोड़ा ज़्यादा देखा गया है। यह मुख्यतया अधेड उम्र व #वृद्धावस्था का रोग है। 50 की उम्र पार करने के बाद वैसे तो यह बीमारी किसी को भी हो सकती है, 60 वर्ष से अधिक उम्र वाले हर सौ व्यक्तियों में से एक को यह होता है। विकसित देशो में वृद्धों का प्रतिशत अधिक होने से वहां इसके मामले अधिक देखने को मिलते हैं। इस रोग को मिटाया नहीं जा सकता है। वह अनेक वर्षों तक बना रहता है, बढता रहता है। इसलिये जैसे जैसे समाज में वृद्ध लोगों की संख्या बढती है वैसे-वैसे इसके रोगियों की संख्या भी अधिक मिलती है। वर्तमान में विश्व के 60 लाख से ज़्यादा लोग इसकी चपेट में हैं। अकेले अमेरिका में ही इससे दस लाख से ज़्यादा लोग प्रभावित हैं, लोगों की औसत उम्र बढ़ने (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) के साथ-साथ भारत में भी इसके शिकारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
* यह बीमारी 50 वर्ष की उम्र के बाद होती है। इससे मरीज़ की शारीरिक गतिविधियां धीमी हो जाती हैं और दिमाग भी सही ढंग से काम करना बंद कर देता है। यह मस्तिष्क के एक छोटे से गहरे केन्द्रीय भाग में स्थित सेल्स के डैमेज होने की वजह से होती है लेकिन आखिर ये सेल्स डैमेज क्यों होती हैं, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। ब्रेन के एक ख़ास हिस्से बैसल गैंग्लिया में स्ट्रायटोनायग्रल नामक सेल्स (स्ट्राएटम की कोशिकाओं) होते हैं। सब्सटेंशिया निग्रा (शाब्दिक अर्थ काला पदार्थ) की न्यूरान कोशिकाओं की संख्या कम होने लगती है। वे क्षय होती है। उनकी जल्दी मृत्यु होने लगती है। आकार छोटा हो जाता है। स्ट्राएटम तथा सब्सटेंशिया निग्रा (काला पदार्थ) नामक हिस्सों में स्थित इन न्यूरान कोशिकाओं द्वारा रिसने वाले रासायनिक पदार्थों (न्यूरोट्रांसमिटर) का आपसी सन्तुलन बिगड जाता है।
* इन सेल्स से निकलने वाला डोपामिन नामक केमिकल शारीरिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए न्यूरोट्रांसमीटर का काम करता है। उनके द्वारा रिसने वाला महत्त्वपूर्ण रसायन न्यूरोट्रांसमिटर 'डोपामीन' कम बनता है तथा एसीटिल कोलीन की मात्रा तुलनात्मक रूप से बढ जाती है। इससे इंसान का शारीरिक गतिविधियों पर से कंट्रोल हट जाता है। स्ट्रायनोटायग्रल के मरने का क्या कारण है, इससे अभी भी पर्दा नहीं उठ पाया है।
* कुछ स्टडीज से यह पता लगा है कि पार्किन्सन से पीड़ित लगभग दस प्रतिशत मरीज़ों के परिवार में पहले भी इस तरह की समस्या देखी गई थी अर्थात यह वंशानुगत हो सकती है।
पार्किन्सन रोग का मस्तिष्क:-
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* पार्किन्सन रोग व्यक्ति को अधिक सोच-विचार का कार्य करने तथा नकारात्मक सोच ओर मानसिक तनाव के कारण होता है।
* किसी प्रकार से दिमाग पर चोट लग जाने से भी पार्किन्सन रोग हो सकता है। इससे मस्तिष्क के ब्रेन पोस्टर कंट्रोल करने वाले हिस्से में डैमेज हो जाता है।
* कुछ प्रकार की औषधियाँ जो मानसिक रोगों में प्रयुक्त होती हैं, अधिक नींद लाने वाली दवाइयों का सेवन तथा एन्टी डिप्रेसिव दवाइयों का सेवन करने से भी पार्किन्सन रोग हो जाता है।
* अधिक धूम्रपान करने, तम्बाकू का सेवन करने, फास्ट-फूड का सेवन करने, शराब, प्रदूषण तथा नशीली दवाईयों का सेवन करने के कारण भी पार्किन्सन रोग हो जाता है।
* शरीर में विटामिन `ई´ की कमी हो जाने के कारण भी पार्किन्सन रोग हो जाता है।
* तरह -तरह के इन्फेक्शन -- मस्तिष्क में वायरस के इन्फेक्शन (एन्सेफेलाइटिस) ।
* मस्तिष्क तक ख़ून पहुंचाने वाले नलियों का अवरुद्ध होना ।
* मैंगनीज की विषाक्तता।
* विशेषज्ञों का कहना है कि फिलहाल बचाव और पर्मानेंट इलाज न सही, लेकिन सामान्य जीवन जीने के लिए दवाएं ज़रूर उपलब्ध हो चुकी हैं। ऐसे में डॉक्टर की सलाह और परिवार के सहयोग से मरीज़ की समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। इस बीमारी को जड़ से खत्म करने वाला इलाज अभी उपलब्ध नहीं है। लिहाज़ा, इस बीमारी के पेशेंट को जीवनभर दवाई खानी पड़ सकती है। हालांकि दवाओं से रोकथाम हो जाती है। लेकिन बीमारी के असर को कम करने के लिए कई तरह की दवाएं उपलब्ध हैं, जो डोपामिन के स्त्राव को बढ़ाने में मदद करती हैं। लेकिन ये काफ़ी महंगी होती हैं। इनके साइड इफेक्ट्स भी बहुत ज़्यादा देखे जाते हैं, इसलिए विशेषज्ञ की देखरेख में ही ये दवाएं दी जाती हैं। सही तरीक़े से दवाई लेने से मरीज़ 30 साल जक जीवित रह सकता है। पार्किसन के मरीज़ों को दवाइयों का सेवन सही तरीक़े से करना चाहिए। इसके साथ ही इस बीमारी के लिए डीप ब्रेन स्टिम्युलेशन सर्जरी भी होने लगी है। दिल्ली में यह सुविधा केवल सिर्फ़ एम्स व आर्मी हॉस्पिटल में उपलब्ध है। यहां भी सर्जरी का खर्च लगभग पांच लाख रुपए आता है। मरीज़ों को संभल कर चलना चाहिए क्योंकि वे अचानक लड़खड़ाकर गिर सकते हैं, जिससे पैर हाथ पर चोटें आ सकती है। साथ ही उन्हें शारीरिक श्रम करने पर भी सावधानियां बरतनी चाहिए। बीमारी को जड़ से खत्म करने संबंधित दवाओं पर विश्व के जाने माने न्यूरोलाजिस्ट लगातार रिसर्च कर रहे हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा से इलाज :-
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* पार्किन्सन रोग को ठीक करने के लिए 4-5 दिनों तक पानी में नीबू का रस मिलाकर पीना चाहिए। इसके अलावा इस रोग में नारियल का पानी पीना भी बहुत लाभदायक होता है।
* इस रोग में रोगी व्यक्ति को फलों तथा सब्जियों का रस पीना भी बहुत लाभदायक होता है। रोगी व्यक्ति को लगभग 10 दिनों तक बिना पका हुआ भोजन करना चाहिए।
* सोयाबीन को दूध में मिलाकर, तिलों को दूध में मिलाकर या बकरी के दूध का अधिक सेवन करने से यह रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
* रोगी व्यक्ति को हरी पत्तेदार सब्जियों का सलाद में बहुत अधिक प्रयोग करना चाहिए।
* रोगी व्यक्ति को जिन पदार्थो में विटामिन `ई´ की मात्रा अधिक हो भोजन के रूप में उन पदार्थों का अधिक सेवन करना चाहिए।
* रोगी व्यक्ति को कॉफी, चाय, नशीली चीज़ें, नमक, चीनी, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
* प्रतिदिन कुछ हल्के व्यायाम करने से यह रोग जल्दी ठीक हो जाता है।
* पार्किन्सन रोग से पीड़ित रोगी को अपने विचारों को हमेशा सकरात्मक रखने चाहिए तथा खुश रहने की कोशिश करनी चाहिए।
* प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से प्रतिदिन उपचार करे तो पार्किन्सन रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
* जिन व्यक्तियों के शरीर में विटामिन 'डी' बड़ी मात्रा में मौजूद है, उनमें पार्किंसन बीमारी होने का ख़तरा कम होता है। सूरज की किरणें विटामिन 'डी' का बड़ा स्रोत हैं। बहुत ही कम ऐसे खाद्य पदार्थ हैं जिनमें विटामिन 'डी' पाया जाता है। यदि शरीर में विटामिन 'डी' की मात्रा कम होती है तो उससे हड्डियों में कमोजरी, कैंसर, दिल की बीमारियों और डायबिटीज हो सकती है, लेकिन अब विटामिन 'डी' की कमी पार्किंसन की वजह भी बन सकती है।
*आमतौर पर लोग अपनी थकान दूर करने के लिए चाय और कॉफ़ी पीते हैं। लेकिन क्या आप जानते है कि कॉफ़ी की ये चुस्कियां पार्किनसन जैसी गंभीर बीमारी के लिए वरदान साबित हो सकती हैं। क्योंकि लिस्बन यूनिवर्सिटी के अतंर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की टीम ने ये दावा किया है कि कॉफ़ी में मौजूद कैफ़ीन से पार्किनसन होने का ख़तरा कम हो जाता है। कॉफ़ी पीने वालों में से 26 लोगों पर किए गए शोध के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि कॉफी पीने से पार्किसन का ख़तरा कम हो जाता है। रोज़ाना दो से तीन कप कॉफ़ी पीने से पार्किनसन होने की संभावना 14 फ़ीसदी कम हो जाती है। हालांकि अब तक इस बात का साफ़ तौर पर पता नहीं चल पाया है कि पार्किनसन से लड़ने में कैफ़ीन ही कारागार साबित हो रही है या कॉफ़ी में मौजूद दूसरे तत्व। फ़िलहाल इस मामले में शोध जारी है, वहीं कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि भारी मात्रा में चाय कॉफ़ी पीना सेहत के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।
* बहुत सारे मरीजों में पार्किन्सोनिज्म रोग की शुरुआत कम्पन से होती है । कम्पन अर्थात् धूजनी या धूजन या ट्रेमर या कांपना ।
कम्पन किस अंग का :-
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* हाथ की एक कलाई या अधिक अंगुलियों का, हाथ की कलाई का, बांह का । पहले कम रहता है । यदाकदा होता है । रुक रुक कर होता है । बाद में अधिक देर तक रहने लगता है व अन्य अंगों को भी प्रभावित करता है । प्रायः एक ही ओर (दायें या बायें) रहता है, परन्तु अनेक मरीजों में, बाद में दोनों ओर होने लगता है।
* आराम की अवस्था में जब हाथ टेबल पर या घुटने पर, जमीन या कुर्सी पर टिका हुआ हो तब यह कम्पन दिखाई पडता है । बारिक सधे हुए काम करने में दिक्कत आने लगती है, जैसे कि लिखना, बटन लगाना, दाढी बनाना, मूंछ के बाल काटना, सुई में धागा पिरोना । कुछ समय बाद में, उसी ओर का पांव प्रभावित होता है । कम्पन या उससे अधिक महत्वपूर्ण, भारीपन या धीमापन के कारण चलते समय वह पैर घिसटता है, धीरे उठता है, देर से उठता है, कम उठता है । धीमापन, समस्त गतिविधियों में व्याप्त हो जाता है । चाल धीमी/काम धीमा । शरी की मांसपेशियों की ताकत कम नहीं होती है, लकवा नहीं होता । परन्तु सुघडता व फूर्ति से काम करने की क्षमता कम होती जाती है ।
* हाथ पैरों में जकडन होती है । मरीज को भारीपन का अहसास हो सकता है । परन्तु जकडन की पहचान चिकित्सक बेहतर कर पाते हैं - जब से मरीज के हाथ पैरों को मोड कर व सीधा कर के देखते हैं बहुत प्रतिरोध मिलता है । मरीज जानबूझ कर नहीं कर रहा होता । जकडन वाला प्रतिरोध अपने आप बना रहता है ।
* खडे होते समय व चलते समय मरीज सीधा तन कर नहीं रहता । थोडा सा आगे की ओर झुक जाता है । घुटने व कुहनी भी थोडे मुडे रहते हैं । कदम छोटे होते हैं । पांव जमीन में घिसटते हुए आवाज करते हैं । कदम कम उठते हैं गिरने की प्रवृत्ति बन जाती है । ढलान वाली जगह पर छोटे कदम जल्दी-जल्दी उठते हैं व कभी-कभी रोकते नहीं बनता ।
* चलते समय भुजाएं स्थिर रहती हैं, आगे पीछे झूलती नहीं । बैठे से उठने में देर लगती है, दिक्कत होती है । चलते -चलते रुकने व मुडने में परेशानी होती है । चेहरे का दृश्य बदल जाता है । आंखों का झपकना कम हो जाता है । आंखें चौडी खुली रहती हैं । व्यक्ति मानों सतत घूर रहा हो या टकटकी लगाए हो । चेहरा भावशून्य प्रतीत होता है बातचीत करते समय चेहरे पर खिलने वाले तरह-तरह के भाव व मुद्राएं (जैसे कि मुस्कुराना, हंसना, क्रोध, दुःख, भय आदि ) प्रकट नहीं होते या कम नजर आते हैं । उपरोक्त वर्णित अनेक लक्षणों में से कुछ, प्रायः वृद्धावस्था में बिना पार्किन्सोनिज्म के भी देखे जा सकते हैं । कभी-कभी यह भेद करना मुश्किल हो जाता है कि बूढे व्यक्तियों में होने वाले कम्पन, धीमापन, चलने की दिक्कत डगमगापन आदि पार्किन्सोनिज्म के कारण हैं या सिर्फ उम्र के कारण।
* खाना खाने में तकलीफें होती है । भोजन निगलना धीमा हो जाता है । गले में अटकता है । कम्पन के कारण गिलास या कप छलकते हैं । हाथों से कौर टपकता है । मुंह में लार अधिक आती है । चबाना धीमा हो जाता है । ठसका लगता है, खांसी आती है ।
* बाद के वर्षों में जब औषधियों का आरम्भिक अच्छा प्रभाव क्षीणतर होता चला जाता है । मरीज की गतिविधियां सिमटती जाती हैं, घूमना-फिरना बन्द हो जाता है । दैनिक नित्य कर्मों में मदद लगती है । संवादहीनता पैदा होती है क्योंकि उच्चारण इतना धीमा, स्फुट अस्पष्ट कि घर वालों को भी ठीक से समझ नहीं आता ।
* स्वाभाविक ही मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका असर पडता है । सुस्ती, उदासी व चिडचिडापन पैदा होते हैं। स्मृति में मामूली कमी देखी जा सकती है ।
* कुछ अन्य लक्षण व समस्याएं हो पार्किन्सन रोगियों में देखी जाती हैं जेसे नींद में कमी, वजन में कमी, कब्जियत, जल्दी सांस भर आना, पेशाब करने में रुकावट, चक्कर आना, खडे होने पर अंधेरा आना, सेक्स में कमजोरी ।
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